अल्लाह से पुर उम्मीद रहना और मायूस ना होना

अल्लाह سبحانه وتعالیٰ से पुर उम्मीद होने का तकाज़ा ये है के उस से हुस्ने ज़न (अच्छा गुमान) रखा जाये। और अल्लाह से हुस्ने ज़न ये है के उसकी रहमत से मायूस ना हो। उसकी नुसरत और मदद, उसकी रहमत और मग़फ़िरत और कुशादगी का तलबगार रहे, जिस तरह रब سبحانه وتعالیٰ ने अपने से ख़ौफ़़ रखने वाले और एहले ख़शीयत की तारीफ़़ की है उसी तरह अपनी रहमत के उम्मीदवार की भी तारीफ़़ फ़रमाई है और रजा और उम्मीद ओ हुस्ने ज़न को अल्लाह سبحانه وتعالیٰ से ख़ौफ़ रखने की तरह ही वाजिब क़रार दिया है। लिहाज़ा ख़ुदा के बन्दे के लिए मुनासिब और ज़रूरी है के वो अल्लाह से एक ही वक़्त में डरे भी और उसकी रहमत से पुर उम्मीद भी रहे। ख़ौफ़ के ताल्लुक़ से दलाइल पिछले सफ़हात में गुज़र चुके हैं, नीचे अल्लाह से पुर उम्मीद रहने और उससे मायूस ना होने के क़ुरआन और सुन्नत से दलाइल पेश हैं

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَ الَّذِيْنَ هَاجَرُوْا وَ جٰهَدُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ١ۙ اُولٰٓىِٕكَ
 يَرْجُوْنَ رَحْمَتَ اللّٰهِ١ؕ وَ اللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ

रहे वो लोग जो साहिबे ईमान हुए, और जिन्होंने हिजरत की और ख़ुदा की राह में जिहाद किया, वही ख़ुदा की रहमत के उम्मीदवार हैं ये ख़ुदा भी बख़्शने वाला, निहायत रहम वाला है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अल बक़रह -218)

وَ ادْعُوْهُ خَوْفًا وَّ طَمَعًا١ؕ اِنَّ رَحْمَتَ اللّٰهِ قَرِيْبٌ مِّنَ الْمُحْسِنِيْنَ
ख़ौफ़ और तमअ़ (नेक ख़्वाहिश) के साथ उसे पुकारो, यक़ीनन अल्लाह की रहमत नेकोकारों से क़रीब है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआन: अल आराफ़ -56)

وَ اِنَّ رَبَّكَ لَذُوْ مَغْفِرَةٍ لِّلنَّاسِ عَلٰى ظُلْمِهِمْ١ۚ وَ اِنَّ رَبَّكَ لَشَدِيْدُ الْعِقَابِ
हक़ीक़त ये है के तेरा रब लोगों की ज़्यादतियों के बावजूद उनके साथ चश्मपोशी से काम लेता है। और ये भी हक़ीक़त है के तेरा रब सख़्त सज़ा देने वाला है। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआन: अल रअद-06)

اُولٰٓىِٕكَ الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ يَبْتَغُوْنَ اِلٰى رَبِّهِمُ الْوَسِيْلَةَ اَيُّهُمْ اَقْرَبُ وَ يَرْجُوْنَ رَحْمَتَهٗ وَ يَخَافُوْنَ عَذَابَهٗ ١ؕ اِنَّ عَذَابَ رَبِّكَ كَانَ مَحْذُوْرًا۰۰۵۷
जिन को ये पुकारते हैं वो तो ख़ुद अपने रब तक रसाई हासिल करने का वसीला तलाश करते हैं के कौन इन में सब से ज़्यादा कुर्ब हासिल कर ले। और वो उसकी रहमत के उम्मीदवार हैं, और उसके अ़ज़ाब से डरते रहते हैं। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआन: बनी इसराईल- 57)

وَ يَدْعُوْنَنَا رَغَبًا وَّ رَهَبًا١ؕ وَ كَانُوْا لَنَا خٰشِعِيْنَ
हम को रग़्बत और ख़ौफ़ के साथ पुकारते थे और हमारे आगे झुके हुए थे। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआन : अल अन्बिया-90)

اَمَّنْ هُوَ قَانِتٌ اٰنَآءَ الَّيْلِ سَاجِدًا وَّ قَآىِٕمًا يَّحْذَرُ الْاٰخِرَةَ وَ يَرْجُوْا رَحْمَةَ رَبِّهٖ١ؕ قُلْ هَلْ يَسْتَوِي الَّذِيْنَ يَعْلَمُوْنَ وَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ١ؕ اِنَّمَا يَتَذَكَّرُ اُولُوا الْاَلْبَابِ

(क्या काफिर बेहतर है) या वो जो औक़ाते शब में सज्दा और क़ियाम करता, आख़िरत से अंदेशानाक और अपने रब की रहमत की उम्मीद रखता हुआ नियाज़ मंदी के साथ बंदगी में लगा रहता है? कहोः क्या वो लोग जो जानते हैं और वो लोग जो नहीं जानते दोनों यकसाँ होंगे? याददहानी तो अक़्ल और ख़िरद वाले ही हासिल करते हैं। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआन: अल ज़ुमर-09)

वासला बिन अस्क़अ़ कहते हैं के मैंने रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) को ये फ़रमाते सुना के अल्लाह سبحانه وتعالیٰ का फ़रमान हैः

((أنا عند عبدي بي، إن ظن خیرًا فلہ، وإن ظن شراً فلہ))
बंदे से मेरा मुआमला उस ज़न (ग़ुमान) के मुताबिक़ होता है जो वो मुझ से रखता है। अगर मेरे ताल्लुक़ से उसका ज़न ख़ैर का है तो उसके लिए ख़ैर है अगर गुमान शर का है तो उसके लिए शर है।

अल्लाह سبحانه وتعالیٰ का ये हुक्म इस बात का क़रीना है यानी आयात और अहादीस में अल्लाह سبحانه وتعالیٰ से हुस्ने ज़न और उससे पुर उम्मीद रहने का हुक्म कतई फ़र्ज़ है।
हज़रत अबू हुरैराह (رضي الله عنه) रिवायत करते हैं के नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया के अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का फ़रमान हैः

((أنا عند ظن عبدي بي، وأنا معہ حین یذکر ني۔۔۔))
मैं अपने बंदे के गुमान के क़रीब होता हूँ, जो वो मेरे ताल्लुक़ से रखता है। और मैं उस बंदे के साथ होता हूँ, जिस वक़्त वो मुझे याद करता है। (मुत्तफिक़ अ़लैह)

मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत जाबिर (رضي الله عنه) से नक़ल है के उन्होंने नबी अकरम को वफ़ात से तीन दिन पहले ये फ़रमाते सुनाः

((لا یموتن أحدکم إلا وھو یحسن الظن باللہ عز وجل))
तुम में से हर एक की मौत इस हाल में हो के वो अल्लाह سبحانه وتعالیٰ के सिलसिले में हुस्ने ज़न रखता हो।

तिरमिज़ी और इब्ने माजा में हज़रत अनस (رضي الله عنه) से मरवी है के नबी अकरम एक नौजवान के पास गए वो हालते नज़ाअ (मौत की हालत) में था, आप (صلى الله عليه وسلم) ने पूछा! कैसा महसूस कर रहे हो? उस नौजवान ने कहा ऐ रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)! अल्लाह की रहमत से लौ लगा रखी है और अपने गुनाहों से ख़ौफ़ज़दा हूँ। नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

(( لا یجتمعان في قلب عبد في مثل ھذا الموطن إلا أعطاہ اللہ
 ما یرجو وآمنہ مما یخاف))

अल्लाह किसी बंदे में ये दोनों चीज़ें (ख़ौफ़ और उम्मीद) जमा नहीं करता, सिवाए इसके के उसे वो अ़ता कर दे जिसकी उसे उम्मीद हो और उस ख़ौफ़ से राहत दे दे जो उसे लाहक़ हो।

तिरमिज़ी में हसन हदीस हज़रत अनस (رضي الله عنه) से नक़ल की है के मैंने रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) से सुना के अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त इरशाद फ़रमाता हैः

((یاابن آدم إنک ما دعوتني ورجوتني غفرت لک علی ما کان منک ولا أبالي، یا ابن آدم لو بلغت ذنوبک عنان السماء ثم استغفرتني غفرت لک، یا ابن آدم لو أتیتني بقراب الأرض خطابا ثم لقیتني لا تشرک بي شیئاً لأتیتک بقرابھا مغفرۃ))

ऐ औलादे आदम! तू मुझ को पुकारता है और मुझ से उम्मीद लगाता है। मैं तुझ से सादिर होने वाले गुनाहों को माफ़ करता हूँ और इस की परवाह भी नहीं करता, ऐ आदमजा़द! अगर तेरे गुनाह आसमान की बुलंदी को भी पहुंच जाऐें और फिर भी तू मुझ से मग़फ़िरत तलब करे तो मैं तुझ को माफ़ कर दूंगा। ऐ आदम की औलाद! अगर तू ज़मीन के बराबर गुनाहों के साथ मेरे पास आता है बशर्तेके तू ने मेरे साथ किसी को शरीक नहीं किया तो मैं तुझे बख़्श दूंगा।

क़ुनूत और अल्लाह से मायूसी, ये दोनों हम मानी हैं और इनकी ज़िद (opposite) अल्लाह سبحانه وتعالیٰ से उम्मीद लगाना है। अल्लाह سبحانه وتعالیٰ की रहमत से मायूसी और ना उम्मीदी हराम हैं और इस की दलील क़ुरआन और सुन्नते रसूल से मिलती हैः

يٰبَنِيَّ اذْهَبُوْا فَتَحَسَّسُوْا مِنْ يُّوْسُفَ وَ اَخِيْهِ وَ لَا تَايْـَٔسُوْا مِنْ رَّوْحِ اللّٰهِ١ؕ اِنَّهٗ لَا يَايْـَٔسُ مِنْ رَّوْحِ اللّٰهِ اِلَّا الْقَوْمُ الْكٰفِرُوْنَ

ऐ मेरे बेटो, जाओ और यूसुफ़ और इसके भाई की टोह लगाओ। और अल्लाह की रहमत से मायूस ना हो अल्लाह की रहमत से तो सिर्फ़ काफ़िर लोग ही मायूस हुआ करते हैं। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः यूसुफ़ -87)

قَالُوْا بَشَّرْنٰكَ بِالْحَقِّ فَلَا تَكُنْ مِّنَ الْقٰنِطِيْنَ۰۰۵۵ قَالَ وَ مَنْ يَّقْنَطُ
 مِنْ رَّحْمَةِ رَبِّهٖۤ اِلَّا الضَّآلُّوْنَ

उन्होंने कहाः हम तुम्हें बरहक बशारत दे रहे हैं, तुम मायूस ना हो, इब्राहिम ने कहाः अपने रब की रहमतों से मायूस तो गुमराह लोग हुआ करते हैं। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः हिज्र - 55,56)


وَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَ لِقَآىِٕهٖۤ اُولٰٓىِٕكَ يَىِٕسُوْا مِنْ رَّحْمَتِيْ
 وَ اُولٰٓىِٕكَ لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ

जिन लोगों ने अल्लाह की आयात का और उससे मुलाक़ात का इंकार  किया है वो मेरी रहमत से मायूस हो चुके हैं, और उनके लिए दर्दनाक अ़ज़ाब है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीमः अल अ़नकबूत-23)
قُلْ يٰعِبَادِيَ الَّذِيْنَ اَسْرَفُوْا عَلٰۤى اَنْفُسِهِمْ لَا تَقْنَطُوْا مِنْ رَّحْمَةِ اللّٰهِ١ؕ اِنَّ اللّٰهَ يَغْفِرُ الذُّنُوْبَ جَمِيْعًا١ؕ اِنَّهٗ هُوَ الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ

ऐ मेरे नबी आप कह दीजिए ऐ मेरे बंदों! जिन्होंने अपनी जानों पर ज़्यादती की है अल्लाह की रहमत से मायूस ना हो जाओ, यक़ीनन अल्लाह सारे गुनाहों को माफ़ कर देता है, वो तो माफ़ करने वाला और रहम करने वाला है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अल ज़ुमर- 53)

हज़रत अबु हुरैराह (رضي الله عنه) से मुत्तफिक़ अ़लैह हदीस नक़ल है के आँहज़रत (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((لو یعلم المؤمن ما عند اللّہِ من العقوبۃ ما طمع بجنتہ أحد، ولو یعلم الکافر ما عند اللّٰہِ من الرحمۃ ما قنط من جنتہ أحد))

अगर एक मोमिन को ये इ़ल्म हो के अल्लाह के पास क्या क्या अ़ज़ाब हैं तो कोई उसकी जन्नत की लालच ना करे, और अगर एक काफ़िर को ये मालूम हो के अल्लाह किस क़दर रहीम है तो कोई उसकी जन्नत से मायूस ना हो।

इमाम बुख़ारी ने अल अदब उल मुफर्रद में फुज़ाला बिन उ़बैद से रिवायत नक़ल की है जिसे इब्ने हिब्बान ने अपनी सही में, मुसनद अहमद, तिबरानी और अल बज़्ज़ार ने भी रिवायत किया है के नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((وثلاثۃ لا تسأل عنھم: رجل نازع اللہ عز وجل رداء ہ فإن رداء ہ الکبریاء وإزارہ العزۃ، ورجل شک في امر اللہ، والقنوط من رحمۃ اللہ))

तीन लोगों के बारे में अल्लाह سبحانه وتعالیٰ नहीं पूछेगा, एक वो शख़्स जो अल्लाह से लिबास के बारे में तनाज़ा करे क्योंकि उसकी चादर या कुरता उसकी किबरियाई और उसका इज़ार उसकी इज़्ज़त है, दूसरा वो शख़्स जो अल्लाह के मुआमले में शक करेगा, तीसरा वो शख़्स जो रहमते इलाही से मायूस हो।

मुसनद अहमद, इब्ने माजा और इब्ने हिब्बान ने हिबा और सवा से नक़ल किया है जो आले ख़ालिद हैं के ये दोनों हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) के पास गए वो किसी काम में मसरूफ़ थे, तो हमने उनकी मदद की तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

))لا تیأسا من الرزق ما تھززت رؤوسکما فإن الإنسان تلدہ أمہ أحمر لیس علیہ قشر، ثم یرزقہ اللہ عز وجل))

रिज़्क़ से मायूस ना हो। यक़ीनन आदमी को इस की माँ ऐसे पैदा करती है के उसका रंग सुर्ख़ होता है और उस पर छिलका नहीं होता, (लिबास नहीं होता) फिर अल्लाह سبحانه وتعالیٰ उसको रोज़ी देता है।

तिबरानी और अलबज़्ज़ार ने हज़रत इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) से रिवायत किया है जिसे अल इ़राक़ी और सुयूती ने हसन सनद बताया, कि एक आदमी ने रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) से कबाइर गुनाह के बारे में सवाल किया तो आप ने फ़रमाया:

((الشرک باللہ، والأیاس من روح اللہ، والقنوط من رحمۃ اللہ))
अल्लाह के साथ शिर्क करना, उसके करम से मायूस होना, और उसकी रहमत से ना उम्मीद होना।

अन्बिया किराम कभी भी अल्लाह की मदद-ओ-नुसरत और कुशादगी से मायूस नहीं हुए। बल्कि उनकी मायूसी उनके क़ौम के ईमान ना लाने की वजह से थी। चुनांचे अल्लाह سبحانه وتعالیٰ फ़रमाता हैः
حَتّٰۤى اِذَا اسْتَيْـَٔسَ الرُّسُلُ وَ ظَنُّوْۤا اَنَّهُمْ قَدْ كُذِبُوْا جَآءَهُمْ نَصْرُنَا فَنُجِّيَ مَنْ نَّشَآءُ١ؕ وَ لَا يُرَدُّ بَاْسُنَا عَنِ الْقَوْمِ الْمُجْرِمِيْنَ

जब रसूल मायूस हो गए और ये गुमान किया के उनकी तकज़ीब की जाऐगी हमारी मदद उनको पहूँची, पस जिसे हम चाहते हैं निजात देते हैं और हमारे अ़ज़ाब को मुजरिम क़ौम से कोई रोक नहीं सकता। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम: यूसुफ़-110)


सही बुख़ारी में वारिद हुआ है के हज़रत आइशा (رضي الله عنه)ا ने (كُذِبُوْا) को मुशद्दद पढ़ा यानी (كُذِّبُوْا), यानी तकज़ीब क़ौम की तरफ़ से थी इसलिए के रसूल तो मासूम होते हैं।
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