तवक्कुल और इख़्लास

अव्वलन तवक्कुल अललल्लाह (अल्लाह पर भरोसे) से मुताल्लिक़ चंद मसाइल का जानना ज़रूरी है।

पहला: तवक्कुल का ताल्लुक़ अ़क़ीदे से है यानी ये जानना के ख़ालिक़ हक़ीक़ी अल्लाह سبحانه وتعالیٰ है और मुसलमान को हुसूले नफ़ा और नुक़्सान देह चीज़ों में अल्लाह ही पर एतेमाद और तवक्कुल करना चाहिए। इस अ़क़ीदे का इंकार  करने वाला काफ़िर शुमार होगा।

दूसरा: एक बंदे पर वाजिब है के अपने तमाम मुआमलात में अल्लाह पर ही एतेमाद ओ तवक्कुल करे। ये तवक्कुल आदमी के दिल से ताल्लुक़ रखता है अगर बग़ैर दिली इत्मिनान और और दिली तस्दीक़ के ये काम अंजाम दे तो इसका कोई एतेबार नहीं होगा।

तीसरा: अगर कोई मुसलमान तवक्कुल की क़तई दलीलों का इंकार  करता है तो वो कुफ्र का मुर्तकिब होगा।

चोथा: तवक्कुल और अस्बाब को इख़्तियार करना दोनों अलग अलग चीज़ें हैं और और उनके दलाइल भी मुख़्तलिफ़ हैं। रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ज़ाते बारी  ताअला पर तवक्कुल भी करते थे और अस्बाब को इख़्तियार भी करते थे और सहाबा को इसका हुक्म भी देते थे, इस सिलसिले में आयात और अहादीस वारिद हुई हैं, चुनांचे आप इस्तिताअ़त के मुताबिक़ असलेहा और कुव्वत-ओ-ताक़त के अस्बाब जमा करते जैसे बदर के कुओं पर क़ब्ज़ा करना, ख़ंदक़ खोदना, सफ़्वान से ज़िरहें लेना, जासूस भेजना, ख़ैबर का पानी बंद करना, फ़तह मक्का के वक़्त मदीना की ख़बरों को क़ुरैश तक पहुँचने से रोकना, फ़तह मक्का के वक़्त दो ज़राओं के दरमियान मेहफ़ूज़ हो कर दाख़िल होना, फिर ये आयत नाज़िल हुईः

وَ اللّٰهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ١ؕ
लोगों से अल्लाह तुम्हें बचाऐगा। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम: अल माइदा -67)

मक्का में आप (صلى الله عليه وسلم) ने सहाबा को हिज्रते हबशा की इज़ाज़त दी और अबू तालिब की हिमायत को क़ुबूल किया, मुक़ातआ या बाईकॉट के एक लंबे ज़माने तक शेअ़बे अबी तालिब में क़ियाम किया और हिजरत की रात आप ने हज़रत अ़ली (رضي الله عنه) को अपने बिस्तर पर सोने का हुक्म दिया और तीन रात ग़ारे हिरा में क़ियाम किया, बनू वायल के एक आदमी को उजरत पर राहबर मुक़र्रर किया। ये तमाम अस्बाब के हुसूल में से है और तवक्कुल के मनाफ़ी भी नहीं हैं। और बग़ैर अस्बाब तवक्कुल करना कोई मानी भी नहीं रखता। इनको और आपस में ख़लत-मलत कर देने से तवक्कुल गंजलुक हो जाता है और फिर इसका असर बाक़ी नहीं रहता।

तवक्कुल के वजूब (वाजिब होने) के दलाइलः अल्लाह سبحانه وتعالیٰ फ़रमाता हैः

وَ اللّٰهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ١ؕ
लोगों से अल्लाह तुम्हें बचाऐगा। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : माइदा- 67)

اَلَّذِيْنَ قَالَ لَهُمُ النَّاسُ اِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُوْا لَكُمْ فَاخْشَوْهُمْ فَزَادَهُمْ اِيْمَانًا١ۖۗ وَّ قَالُوْا حَسْبُنَا اللّٰهُ وَ نِعْمَ الْوَكِيْلُ
ये वो लोग हैं जिन से लोगों ने कहाः तुम्हारे ख़िलाफ़ लोग जमा हो गए हैं, लिहाज़ा उनसे डरो तो उस चीज़ ने उनके ईमान को और बढ़ा दिया, और वो बोले, हमारे लिए तो बस अल्लाह काफ़ी है और वो बेहतरीन कारसाज़ है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : आले इमरान -173)

وَ تَوَكَّلْ عَلَى الْحَيِّ الَّذِيْ لَا يَمُوْتُ وَ سَبِّحْ بِحَمْدِهٖ١ؕ وَ كَفٰى بِهٖ بِذُنُوْبِ عِبَادِهٖ خَبِيْرَا
और -उस ज़िंदा खुदावंद पर भरोसा करो जो मरने का नहीं। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआन अ़ज़ीमः अलफ़ुरक़ान - 58)

وَ عَلَى اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ
और एहले ईमान को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अत्तौबा-51)

فَاِذَا عَزَمْتَ فَتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ١ؕ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَوَكِّلِيْنَ
फिर जब तुम्हारा अ़ज़्म किसी राय पर मुस्तहकम हो जाये, तो अल्लाह पर भरोसा करो। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : आले इमरान-159)

وَ مَنْ يَّتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ فَهُوَ حَسْبُهٗ١ؕ
जो अल्लाह पर भरोसा करे, तो वो उसके लिए काफ़ी है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : तलाक़ -03)



فَاعْبُدْهُ وَ تَوَكَّلْ عَلَيْهِ١ؕ
लिहाज़ा उसकी बंदगी करो, और भरोसा भी उसी पर रखो। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआन अ़ज़ीमः हूद-123)

فَاِنْ تَوَلَّوْا فَقُلْ حَسْبِيَ اللّٰهُ١ۖۗٞ لَاۤ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ١ؕ عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ وَ هُوَ رَبُّ الْعَرْشِ الْعَظِيْمِ
अब अगर वो मुंह मोड़े, तो कह दो अल्लाह मेरे लिए काफ़ी है। उसके सिवा कोई माबूद नहीं। उसी पर मैंने भरोसा किया। और वही अ़र्शे अ़ज़ीम का रब है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीमः अत्तौबा -129)

اِذْ يَقُوْلُ الْمُنٰفِقُوْنَ وَ الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ غَرَّ هٰۤؤُلَآءِ دِيْنُهُمْ١ؕ وَ مَنْ يَّتَوَكَّلْ عَلَى اللّٰهِ فَاِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ

हालाँकि जो अल्लाह पर भरोसा रखता है, तो यक़ीनन अल्लाह ज़बरदस्त, निहायत हिक्मत वाला है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम :  अल अनफ़ाल- 49)

तवक्कुल के बाब में वारिद शुदा आयात बेशुमार हैं। फिर मुतअ़द्दिद अहादीस भी तवक्कुल के वजूब पर दलालत करती हैं। इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) से हदीस मरवी है के जिस में ये ज़िक्र है के सत्तर हज़ार लोग बग़ैर हिसाब और अज़ाब जन्नत में दाख़िल किए जाऐेंगे। आप (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाते हैं केः

((ھم الذین لا یرقون، ولا یسترقون، ولا یتطیرون، وعلی ربھم یتوکلون))
ये वो लोग होंगे जो ना तो झाड़ फूंक करते हैं और ना करवाते हैं, ना ही बदशगुनी लेते हैं बल्कि अपने रब पर भरोसा करते हैं।

हज़रत इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) फ़रमाते हैं के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  जब क़ियामुल्लैल फ़रमाते और तहज्जुद में खड़े होते तो कहतेः

((۔۔۔ اللھم لک أسلمت، وبک آمنت، وعلیک توکلت ۔۔۔))۔متفق علیہ

ऐ अल्लाह मैंने ख़ुद को तेरे सपुर्द कर दिया, तुझ पर ईमान लाया और तुझ पर ही भरोसा और तवक्कुल किया।

हज़रत अबूबक्र  (رضي الله عنه) फ़रमाते हैं के जब मैं और रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ग़ारे हिरा में थे, मैंने मुशरिकीन के क़दमों को देखा के वो हमारे सरों पर पहुंच गए हैं तो मैंने अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) से कहा के अगर उन्होंने नज़रें नीचे की तो हम को देख लेंगे, तब आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((ما ظنک یا أبا بکر باثنین اللہ ثالثھما))۔متفق علیہ

ऐ अबूबक्र! उन दो लोगों के बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है जिन का तीसरा साथी (बज़ाते खुद) अल्लाह है।

तवक्कुल के ताल्लुक़ से उम्मे सलमा (رضي الله عنه)ا से मरवी है के नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) जब अपने घर से निकलते तो ये पढ़तेः

((بسم اللہ توکلت علی اللہ،اللھم اِنِّی اَعوذُبِکَ أن اُضِلَّ اَّ واُضَلَّ اَو اَزِلَّ اَو أُزَلَّ اَو أظْلِمَ اَو اُظْلَمَ اَو اَجْھَلَ اَو یُجْھَلَ عَلَیَّ))

अल्लाह के नाम के साथ निकला हूँ अल्लाह पर भरोसा है, ऐ अल्लाह! मैं तेरी इस से पनाह चाहता हूँ के गुमराह हो जाऊं या गुमराह किया जाऊं, या फिसल जाऊं या फिसलाया जाऊं, या ज़ुल्म करूं या मुझ पर ज़ुल्म किया जाये या मैं किसी पर जहालत करूं या मुझ से जहालत की जाये। (सुनन अबी दाऊद)

अनस बिन मालिक (رضي الله عنه) फ़रमाते हैं के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((إذا خرج الرجل من بیتہ فقال: بسم اللہ توکلت علی اللہ لا حول ولا قوۃ إلا باللہ، یقال لہ: حسبک، قد کفیت، وھدیت، ووقیت، فیلقي الشیطان شیطاناً آخر، فیقول لہ: کیف لک برجل قد کفي ووقي وھدي))

जब आदमी अपने घर से निकलता है और कहता है (बिस्मिल्लाहि तवकल्लतु अललल्लाहि ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह) उस से कहा जाता है (ये कलिमा) तेरे लिये काफ़ी है। यक़ीनन तू काफ़ी है, हिदायत पर है, और मेहफ़ूज़ हो गया। फिर शैतान दूसरे शैतान से मिलता है और कहता हैः ये आदमी कैसे तेरे (फंदे) में आएगा जब के ये काफ़ी हो गया और हिदायत पा गया है।

तिरमिज़ी में हज़रत उ़मर बिन ख़त्ताब (رضي الله عنه) से रिवायत है के रसूले अकरम ने फ़रमायाः

((لو أنکم توکلتم علی اللہ حق توکلہ، لرزقکم کما یرزق الطیر، تغدوا خماصاً وتروح بطاناً))۔ترمذی

अगर तुम अल्लाह سبحانه وتعالیٰ पर हक़ीक़ी तवक्कुल करो तो तुम को ऐसे ही रिज़्क़ देगा जिस तरह वो परिंदे को देता है, वो ख़ाली पेट सुबह करते हैं और शाम को शिकम सैर होते हैं।

ताअ़त और इ़बादत में इख़्लास का मानी ये है के इन में रिया और नमूद को तर्क किया जाये और ये दिल के अफआल और एहसासात होते हैं जिन को सिर्फ़ बंदा और उसका ख़ुदा ही जानता है। कभी ये बंदे पर काफ़ी पेचीदा और गंजलुक (गिरह लगा हुआ) होता है। लिहाज़ा वो बारीक बीनी से काम ले, अपना मुहासिबा करे और बार बार ग़़ौर फ़िक्र करे और ख़ुद से सवाल करे के आख़िर क्यों ये ताअ़त (फरमा बरदारी) का काम कर रहा है, क्यों इस में लगा हुआ है? अगर वो ये पाता है के वो सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह के लिए लगा हुआ है और अल्लाह वास्ते इन कामों को अंजाम दे रहा है तो इस में इख़्लास पाया जाता है और अगर वो ये देखता है के इस से कोई और ग़र्ज़ मतलूब है तो ये रियाकारी है। तो एैसी सूरते हाल इलाज और मुआलिजे की मुहताज है और कभी कभी इस में काफ़ी वक़्त दरकार होता है।

लिहाज़ा बंदा जब इस मुक़ाम पर पहुंच जाये जहाँ वो अपनी नेकियों को छुपाने लगे तो ये इख़्लास की अलामत है। अ़ल्लामा क़ुर्तबी رحمت اللہ علیہ फ़रमाते हैं: हज़रत हसन (رضي الله عنه) से इख़्लास और रिया के बारे में सवाल किया गया, तो फ़रमायाः इख़्लास की एक निशानी ये है के आदमी अपनी नेकियों और अच्छाईयों को छुपाना चाहे और अपने बुराईयों को छुपाना ना चाहे।

अबू यूसुफ़ رحمت اللہ علیہ अपनी किताब अलख़िराज में ज़िक्र करते हैं के साद बिन इब्राहिम से रिवायत की है के वो फ़रमाते हैं: लोग जंग क़ादिसिय्या के दिन एक आदमी के पास से गुज़रे जिस के दोनों हाथ और पांव काट दिए गए थे और वो उन्हें देख रहा था और कह रहा था

))مَعَ الَّذِيْنَ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ مِّنَ النَّبِيّٖنَ وَ الصِّدِّيْقِيْنَ۠ وَ الشُّهَدَآءِ وَ الصّٰلِحِيْنَ١ۚ وَ حَسُنَ اُولٰٓىِٕكَ رَفِيْقًاؕ۰۰۶۹((

तो ऐसे लोग उन (मक़बूल) बन्दों के साथ होंगे जिन्हें ख़ुदा ने अपनी नेअ़मतें दी हैं यानी अम्बिया और सिद्दीक़ीन और शुहदा और सालिहीन और ये लोग क्या ही अच्छे रफ़ीक़ हैं।
तो एक आदमी ने उस से पूछाः ऐ अल्लाह के बंदे! तू कौन है? उस ने जवाब दिया अंसार में से हूँ। मगर अपना नाम नहीं बताया।

इख़्लास वाजिब है और क़ुरआन और सुन्नत के अंदर इसके दलाइल मोतियों के मानिंद मुंतशिर (बिखरे हुऐ) हैं।

اِنَّاۤ اَنْزَلْنَاۤ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ فَاعْبُدِ اللّٰهَ مُخْلِصًا لَّهُ الدِّيْنَؕ۰۰۲
बेशक हम ने ये किताब तुम्हारी तरफ़ हक़ के साथ नाज़िल की है पस तुम अल्लाह ही की बंदगी करो, दीन को इसी के लिए ख़ालिस करते हुए, (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अल ज़ुमर -2)

قُلْ اِنِّيْۤ اُمِرْتُ اَنْ اَعْبُدَ اللّٰهَ مُخْلِصًا لَّهُ الدِّيْنَۙ
कह दोः मुझे तो हुक्म दिया गया है कि मैं अल्लाह की बंदगी करूं, दीन को उसी के लिए ख़ालिस करते हुए। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अल ज़ुमर- 11)

قُلِ اللّٰهَ اَعْبُدُ مُخْلِصًا لَّهٗ دِيْنِيْ
कहोः मैं तो ख़ुदा ही की बंदगी करता हूँ, अपने दीन को उसी के लिए ख़ालिस करते हुए। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अल ज़ुमर -14)

और ये बात मालूम होना चाहिए के जब ख़िताब रसूले अकरम  से तो इस से पूरी उम्मत भी मुख़ातिब होती है। सुन्नते रसूल से चंद दलाइल दर्जे ज़ेल हैं:

हज़रत अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द (رضي الله عنه) से रिवायत है के आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((نضر الہ امرء ا سمع مقالتي فوعاھا وحفظھا وبلغھا، فرب حامل فقہ إلی من ھو أفقہ منہ۔ ثلاث لا یغل علیھن قلب مسلم إخلاص العمل للہ، ومنا صحۃ أئمۃ المسلمین، ولزوم جماعتھم، فإن الدعوۃ تحیط من وراءھم))

अल्लाह سبحانه وتعالیٰ उस शख़्स को तरो ताज़ा रखे जो मेरी बात सुने, उसे अच्छी तरह मेहफ़ूज़ करे, फिर उन लोगों तक पहुंचा दे जो उसे बराहे रास्त नहीं सुन सके, क्योंकि बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो फ़िक्ह उठाए हुए होते हैं लेकिन फ़क़ीह नहीं होते, और बहुत से हामिलीन फ़क़ीह उस शख़्स तक बात पहुंचा देते हैं जो उनसे ज़्यादा समझदार होता है। तीन चीज़ें एैसी हैं जिन में मुसलमान का दिल ख़ियानत नहीं कर सकता। (1) अ़मल में इख़्लास, (2) हुक्मरानों के लिए ख़ैर ख़्वाही (3) जमाअ़त के साथ चिमटे रहना क्योंकि जमाअ़त की दुआ उसे पीछे से घेर लेती है।

मुसनद अहमद में असनादे हसन से उबई बिन काब (رضي الله عنه) से नक़ल है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः

((بشر ھذہ الأمۃ بالسنا والرفعۃ والنصر والتمکین في الأرض، فمن عمل منھم عمل الآخرۃ للدنیا لم یکن لہ في الآخرۃ نصیب))
इस उम्मत को बुलंदी, रिफ़अ़त, नुसरत और तमकीन फिल-अर्ज़ अ़ता की गई है। अब जो शख़्स आख़िरत के आमाल दुनिया के हुसूल के लिए करेगा। उसके लिए आख़िरत में कुछ भी हिस्सा ना होगा।

हज़रत अनस (رضي الله عنه) कहते हैं के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم)  ने फ़रमायाः
((من فارق الدنیا علی الإخلاص للہ وحدہ لا شریک لہ، وأقام الصلاۃ، وآتی الزکاۃ، فارقھا واللہ عنہ راض))

जो शख़्स इस दुनिया से इस हालत में जुदा हुआ के वो अल्लाह वादहू के साथ मुख़्लिस था, नमाज़ी था, ज़कात अदा करता था, तो वो दुनिया से जुदा हुआ इस हाल में के अल्लाह उस से राज़ी था।

अबू उमामा अल बाहिली (رضي الله عنه) कहते हैं के रसूले अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((۔۔۔ إن اللہ لا یقبل من العمل إلا ما کان لہ خالصًا،
وابتغي بہ وجھہ))


अल्लाह सिर्फ़ उन्ही आमाल को क़ुबूल करता है जो ख़ालिस उसी के लिए किए जाऐं और उनके ज़रीये उसकी रज़ा मक़सूद हो।
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.